सोमवार, 11 जून 2012

जन संघर्ष और राजनीतिक पेंच - प्रभाकर चौबे

तीन जून को बाबा रामदेव ने काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ एक दिन का अनशन किया। इस बार बाबा रामदेव की जितनी अनदेखी हुई उतनी पहले नहीं हुई थी- जितना प्रचार किया गया था उसके मुकाबले भीड़ जुटी नहीं। भीड़ में जोश की कमी थी। पता नहीं रामदेव के आश्रम से उनकी दवा बेचने वालों को उपस्थित होने निर्देशित किया गया था अथवा नहीं। इस बार भाजपा भी खुलकर सामने नहीं आई हो सकता है इसमें उसकी कुछ राजनीतिक सोच हो। वैसे भाजपा का इन दिनों अपने घर के झगड़े सुलझाने में यादा समय जा रहा है। भाजपा के घर भयंकर पारिवारिक कलह मची है। घर के झगड़े की आवाज बाहर तक आ रही है और आने-जाने वाला पूछने लगा है- भाजपा के घर क्या हो रहा है। घर से इतना हल्ला बाहर आता है। इस झगड़े के कारण भाजपा रामदेव के मुद्दे में वैसी शामिल नहीं हो पाई जैसा कि होती रही है। दूर से ही, घर बैठे ही समर्थन का संदेश भिजवा दिया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी भाजपा के कलह सुलझाने में उलझा है इसलिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने खुला समर्थन नहीं दिया और इसलिए संघ के स्वयं सेवक उस उत्साह के साथ नहीं उतरे। एक तो भीड ऌस कारण कम रही। मठों, आश्रमों, अखाड़ों का भी वैसा समर्थन नहीं दिखा। बाबा, साधु, संत, अखाड़ा के कर्ताधर्ता दिखे नहीं। इस कारण भी भीड़ कम रही। फिर सिविल सोसायटी और उनसे जुडे एनजीओ की भागीदारी भी कम रही। ये जितनों को ला सकते थे उतने पधारे। कुछ न्यूज चैनल्स जरूर दिनभर सक्रिय रहे और मिनट-टू-मिनट की रिपोर्टिंग करते रहे। वे मीडिया धर्म का पालन कर रहे थे अथवा कुछ और कारण था यह समझना चाहिए। इतना यादा मीडिया कवरेज देखकर पेड-न्यूज का संदेह पैदा हो तो आश्चर्य नहीं। ऐसा संदेह पैदा होना स्वाभाविक है। देश में और भी आन्दोलन होते हैं, हुए हैं, हजारों की भीड़ रही है, लेकिन ऐसा कवरेज नहीं दिया जाता।  मजदूरों की हड़ताल हो, कर्मचारियों का आन्दोलन हो, युवकों का धरना-प्रदर्शन हो, जमीन की लडाई हो या जंगल की या मजदूरी की न्यूज चैनल्स ऐसे कवरेज की उदारता नहीं दिखाते। लेकिन बाबा रामदेव हो या अन्ना हजारे की टीम का आन्दोलन हो, न्यूज चैनल्स उदार हो उठते हैं। पैसा भी उदारता का आलम्बन बन जाता है। भीड़ भले न रही हो लेकिन कुछ न्यूज चैनल्स ने बाबा रामदेव के अनशन को आल इंडिया बना दिया। ऐसा पेश कर रहा था मानो और कोई आन्दोलन कभी ऐसा नहीं हुआ। एक न्यूज चैनल्स ने तो बाबा रामदेव का पूरा जीवन वृत्तांत ही पेश किया, बचपन, शिक्षा, परिवार से लेकर अभी तक का।
बाबा रामदेव के आन्दोलन में इस बार अन्ना हजारे भी शामिल हुए। लगता है अन्ना हजारे को लगने लगा था कि वे आऊट ऑफ फोकस हो रहे हैं। पिछले आन्दोलन के बाद अन्ना टीम परिदृश्य से बाहर हो गई थी।  मीडिया को कुछ मसालेदार खबरें चाहिए। मसाला परोसने वालों को मीडिया फोकस में रखता है इसलिए अन्ना टीम ने इस बार प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को भी लपेटे में लिया। उनके 15 मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और डॉ. मनमोहन सिंह को भी दोषी करार दिया। इसका फायदा अन्ना टीम को मिला- पहले ही दिन न्यूज चैनल्स ने उनके बयान को दिनभर रगड़ा। बाद में चर्चा आयोजित की और एक सप्ताह तक अन्ना टीम को अच्छा कवरेज मिल गया। दूसरे दिन प्रिंट मीडिया ने भी प्रमुखता से बयान छापे। कॉलम लेखकों ने लेख लिखे- कोयला आबंटन को लेकर एक मुद्दा मिला और डॉ. मनमोहन सिंह पर चर्चा केन्द्रित हो गई। अन्ना टीम का मकसद पूरा हुआ- उन्हें अपना प्रचार चाहिए था सो डटकर मिला। अन्ना टीम सिविल सोसायटी नहीं, एक काइंया राजनीति की चाल की तरह अपने तर्क रखती है। टीम के कुछ सदस्यों पर भी आरोप हैं। टीम का तर्क है कि इसकी जांच कराई जाए और दोषी पाए जाने पर उन्हें दोगुनी सजा मिले।  जितनी सजा भ्रष्ट मंत्रियों को मिले उससे यादा। दरअसल ऐसा होता नहीं। यह अन्ना टीम जानती है लेकिन कुशल राजनीति दांव-पेंच में माहिर टीम यह कहकर जनता का भावनात्मक दोहन कर रही है। जनता कहे कि देखो बेचारे अपने लिए दोगुनी सजा मांग रहे हैं। वैसे यह उन्हें मालूम है कि दोषी करार देने पर कानून के अनुसार ही उन्हें सजा मिलेगी। लेकिन जनता की भावनाएं भड़काने के उद्देश्य से ऐसे तर्क गढ़े जाते हैं। ऐसी सजा की बात उठाकर अन्ना टीम लोकतंत्र में न्याय प्रक्रिया, न्याय के मानदंड की ही अवहेलना कर रही है और किसी मनमानी व्यवस्था के तहत सजा की वकालत कर रही है। दरअसल अन्ना टीम यह सब जानबूझकर कर रही है- उसे प्रचार पाने के सारे गुर मालूम है। एक तरफ तो वह लोकतंत्र की दुहाई देती है, दूसरी तरफ लोकतंत्र की संस्थाओं को कमजोर करने का उपक्रम करती है। मजेदार बात यह है कि उनके इस बयान पर किसी ने भी उन्हें टोका नहीं कि दोषी पाए जाने पर उन्हें दोगुनी सजा किस कानून के तहत मिलेगी। क्या वे अपनी न्याय प्रक्रिया अलग से गठित करेंगे। वे जितनी सजा मांगे उतनी सजा उन्हें मिले।
बाबा रामदेव अब बाबा नहीं रहे। वे चतुर राजनेता बन गए हैं। स्थितियों को भुनाना सीख गए हैं। कालेधन पर हल्ला बोलकर एक तरह से वे अपने व्यवसाय को शासन की दृष्टि से बचाना चाहते हैं। आज एक सरकारी नोटिस उनके संस्थान को मिल जाती है तो हल्ला मचा दिया जाता है कि कालेधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने वालों को सरकार तंग कर रही है, ऐसा ही अन्ना टीम कहती है कि उसे सरकार तंग कर रही है। मतलब भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन से जुड़े तो व्यक्तिगत जीवन में सब कुछ की छूट मिल गई मानो।
बाबा रामदेव अब बड़े नेताओं से मिल रहे हैं। एक ओर राजनेताओं को भ्रष्ट कहते हैं, राजनीतिक व्यवस्था को नकारते हैं, दूसरी ओर कानून बनाने की मांग लेकर उन्हीं के पास जाते हैं। उन्हें पूर्व में ही यह स्वीकार कर लेना चाहिए था कि कानून सांसद ही बनाएंगे और संसदीय प्रक्रिया के तहत कानून बनेगा सड़क पर कानून नहीं बनेगा। सड़क पर लड़ाई केवल ध्यान आकर्षण है, दबाव है। कोई भी व्यवस्था उसे किस रूप में कितना स्वीकार करे, यह व्यवस्था के केन्द्र में बैठे लोग तय करते हैं। यह सतत संघर्ष है। एक बार में ही सब मनचाहा नहीं मिल जाता। लोकपाल विधेयक अब सिलेक्ट कमेटी को गया यह एक प्रक्रिया है। अगर लोकपाल विधेयक न आया तो पुन: संघर्ष किया जाए, यह सब मानेंगे। लेकिन जैसा हम कह रहे हैं वैसा ही बने, ऐसा कौन मानेगा? जनता की लड़ाई खुले मन, दिमाग, खुली सोच से लड़ी जाती है। राजनीतिक पेंच यादा टिकती नहीं।

2 टिप्‍पणियां:

  1. suru ke 20 line padhne ke baad himmat nehi kia ki aage pade. Only one point comes in my mind " You are biased trying to be intellectual."

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  2. Chaube ji Lagta hai aapki sari umar beet gayi ,Corrupt logon ke paison pe hi palte palte, bahut hi ghatiya lekh likha hai isme aapki bhi bhrasth aur corrupt manskita/ mentality saaf tapak rahi hai .Jai Hind

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