सोमवार, 11 जून 2012

जन संघर्ष और राजनीतिक पेंच - प्रभाकर चौबे

तीन जून को बाबा रामदेव ने काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ एक दिन का अनशन किया। इस बार बाबा रामदेव की जितनी अनदेखी हुई उतनी पहले नहीं हुई थी- जितना प्रचार किया गया था उसके मुकाबले भीड़ जुटी नहीं। भीड़ में जोश की कमी थी। पता नहीं रामदेव के आश्रम से उनकी दवा बेचने वालों को उपस्थित होने निर्देशित किया गया था अथवा नहीं। इस बार भाजपा भी खुलकर सामने नहीं आई हो सकता है इसमें उसकी कुछ राजनीतिक सोच हो। वैसे भाजपा का इन दिनों अपने घर के झगड़े सुलझाने में यादा समय जा रहा है। भाजपा के घर भयंकर पारिवारिक कलह मची है। घर के झगड़े की आवाज बाहर तक आ रही है और आने-जाने वाला पूछने लगा है- भाजपा के घर क्या हो रहा है। घर से इतना हल्ला बाहर आता है। इस झगड़े के कारण भाजपा रामदेव के मुद्दे में वैसी शामिल नहीं हो पाई जैसा कि होती रही है। दूर से ही, घर बैठे ही समर्थन का संदेश भिजवा दिया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी भाजपा के कलह सुलझाने में उलझा है इसलिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने खुला समर्थन नहीं दिया और इसलिए संघ के स्वयं सेवक उस उत्साह के साथ नहीं उतरे। एक तो भीड ऌस कारण कम रही। मठों, आश्रमों, अखाड़ों का भी वैसा समर्थन नहीं दिखा। बाबा, साधु, संत, अखाड़ा के कर्ताधर्ता दिखे नहीं। इस कारण भी भीड़ कम रही। फिर सिविल सोसायटी और उनसे जुडे एनजीओ की भागीदारी भी कम रही। ये जितनों को ला सकते थे उतने पधारे। कुछ न्यूज चैनल्स जरूर दिनभर सक्रिय रहे और मिनट-टू-मिनट की रिपोर्टिंग करते रहे। वे मीडिया धर्म का पालन कर रहे थे अथवा कुछ और कारण था यह समझना चाहिए। इतना यादा मीडिया कवरेज देखकर पेड-न्यूज का संदेह पैदा हो तो आश्चर्य नहीं। ऐसा संदेह पैदा होना स्वाभाविक है। देश में और भी आन्दोलन होते हैं, हुए हैं, हजारों की भीड़ रही है, लेकिन ऐसा कवरेज नहीं दिया जाता।  मजदूरों की हड़ताल हो, कर्मचारियों का आन्दोलन हो, युवकों का धरना-प्रदर्शन हो, जमीन की लडाई हो या जंगल की या मजदूरी की न्यूज चैनल्स ऐसे कवरेज की उदारता नहीं दिखाते। लेकिन बाबा रामदेव हो या अन्ना हजारे की टीम का आन्दोलन हो, न्यूज चैनल्स उदार हो उठते हैं। पैसा भी उदारता का आलम्बन बन जाता है। भीड़ भले न रही हो लेकिन कुछ न्यूज चैनल्स ने बाबा रामदेव के अनशन को आल इंडिया बना दिया। ऐसा पेश कर रहा था मानो और कोई आन्दोलन कभी ऐसा नहीं हुआ। एक न्यूज चैनल्स ने तो बाबा रामदेव का पूरा जीवन वृत्तांत ही पेश किया, बचपन, शिक्षा, परिवार से लेकर अभी तक का।
बाबा रामदेव के आन्दोलन में इस बार अन्ना हजारे भी शामिल हुए। लगता है अन्ना हजारे को लगने लगा था कि वे आऊट ऑफ फोकस हो रहे हैं। पिछले आन्दोलन के बाद अन्ना टीम परिदृश्य से बाहर हो गई थी।  मीडिया को कुछ मसालेदार खबरें चाहिए। मसाला परोसने वालों को मीडिया फोकस में रखता है इसलिए अन्ना टीम ने इस बार प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को भी लपेटे में लिया। उनके 15 मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और डॉ. मनमोहन सिंह को भी दोषी करार दिया। इसका फायदा अन्ना टीम को मिला- पहले ही दिन न्यूज चैनल्स ने उनके बयान को दिनभर रगड़ा। बाद में चर्चा आयोजित की और एक सप्ताह तक अन्ना टीम को अच्छा कवरेज मिल गया। दूसरे दिन प्रिंट मीडिया ने भी प्रमुखता से बयान छापे। कॉलम लेखकों ने लेख लिखे- कोयला आबंटन को लेकर एक मुद्दा मिला और डॉ. मनमोहन सिंह पर चर्चा केन्द्रित हो गई। अन्ना टीम का मकसद पूरा हुआ- उन्हें अपना प्रचार चाहिए था सो डटकर मिला। अन्ना टीम सिविल सोसायटी नहीं, एक काइंया राजनीति की चाल की तरह अपने तर्क रखती है। टीम के कुछ सदस्यों पर भी आरोप हैं। टीम का तर्क है कि इसकी जांच कराई जाए और दोषी पाए जाने पर उन्हें दोगुनी सजा मिले।  जितनी सजा भ्रष्ट मंत्रियों को मिले उससे यादा। दरअसल ऐसा होता नहीं। यह अन्ना टीम जानती है लेकिन कुशल राजनीति दांव-पेंच में माहिर टीम यह कहकर जनता का भावनात्मक दोहन कर रही है। जनता कहे कि देखो बेचारे अपने लिए दोगुनी सजा मांग रहे हैं। वैसे यह उन्हें मालूम है कि दोषी करार देने पर कानून के अनुसार ही उन्हें सजा मिलेगी। लेकिन जनता की भावनाएं भड़काने के उद्देश्य से ऐसे तर्क गढ़े जाते हैं। ऐसी सजा की बात उठाकर अन्ना टीम लोकतंत्र में न्याय प्रक्रिया, न्याय के मानदंड की ही अवहेलना कर रही है और किसी मनमानी व्यवस्था के तहत सजा की वकालत कर रही है। दरअसल अन्ना टीम यह सब जानबूझकर कर रही है- उसे प्रचार पाने के सारे गुर मालूम है। एक तरफ तो वह लोकतंत्र की दुहाई देती है, दूसरी तरफ लोकतंत्र की संस्थाओं को कमजोर करने का उपक्रम करती है। मजेदार बात यह है कि उनके इस बयान पर किसी ने भी उन्हें टोका नहीं कि दोषी पाए जाने पर उन्हें दोगुनी सजा किस कानून के तहत मिलेगी। क्या वे अपनी न्याय प्रक्रिया अलग से गठित करेंगे। वे जितनी सजा मांगे उतनी सजा उन्हें मिले।
बाबा रामदेव अब बाबा नहीं रहे। वे चतुर राजनेता बन गए हैं। स्थितियों को भुनाना सीख गए हैं। कालेधन पर हल्ला बोलकर एक तरह से वे अपने व्यवसाय को शासन की दृष्टि से बचाना चाहते हैं। आज एक सरकारी नोटिस उनके संस्थान को मिल जाती है तो हल्ला मचा दिया जाता है कि कालेधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने वालों को सरकार तंग कर रही है, ऐसा ही अन्ना टीम कहती है कि उसे सरकार तंग कर रही है। मतलब भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन से जुड़े तो व्यक्तिगत जीवन में सब कुछ की छूट मिल गई मानो।
बाबा रामदेव अब बड़े नेताओं से मिल रहे हैं। एक ओर राजनेताओं को भ्रष्ट कहते हैं, राजनीतिक व्यवस्था को नकारते हैं, दूसरी ओर कानून बनाने की मांग लेकर उन्हीं के पास जाते हैं। उन्हें पूर्व में ही यह स्वीकार कर लेना चाहिए था कि कानून सांसद ही बनाएंगे और संसदीय प्रक्रिया के तहत कानून बनेगा सड़क पर कानून नहीं बनेगा। सड़क पर लड़ाई केवल ध्यान आकर्षण है, दबाव है। कोई भी व्यवस्था उसे किस रूप में कितना स्वीकार करे, यह व्यवस्था के केन्द्र में बैठे लोग तय करते हैं। यह सतत संघर्ष है। एक बार में ही सब मनचाहा नहीं मिल जाता। लोकपाल विधेयक अब सिलेक्ट कमेटी को गया यह एक प्रक्रिया है। अगर लोकपाल विधेयक न आया तो पुन: संघर्ष किया जाए, यह सब मानेंगे। लेकिन जैसा हम कह रहे हैं वैसा ही बने, ऐसा कौन मानेगा? जनता की लड़ाई खुले मन, दिमाग, खुली सोच से लड़ी जाती है। राजनीतिक पेंच यादा टिकती नहीं।

मंगलवार, 5 जून 2012

क्रिकेट का मायाजाल 04, Jun, 2012, प्रभाकर चौबे

चार अप्रैल से शुरु हुआ क्रिकेट का आई.पी.एल. सताईस मई को समाप्त हुआ। तिरपन दिनों तक धूमधाम रही। न्यूज चैनल्स को मसालेदार चर्चा के लिए तिरपन दिन थोक में मिले। इन तिरपन दिनों के खेल में स्पष्ट फिक्सिंग से लेकर सट्टेबाजी तक की जमकर चर्चा हुई। मतलब खेल के मैदान के अंदर और बाहर दोनों में पैसों का जोर रहा। सट्टेबाजी की खबरें तो न्याू चैनल्स तक में आती रही। दरअसल अपने यहां क्रिकेट ने सट्टा के लिए एक और क्षेत्र खोल दिया है। वैसे अब क्रिकेट खेल ही नहीं रह गया है। क्रिकेट एक मनोरंजन उद्योग बन गया है जिसमें करोड़ों की पूंजी लगाई गई है। मैदान में खिलाड़ी खेलते हैं और बाहर दूसरे लोग। खिलाड़ी भी खिलाड़ी नहीं रहे, उन्हें वस्तु बना दिया गया है जिनकी खरीद-बिक्री की जा रही है। यह भी आरोप लगा कि जितना पैसा खिलाड़ियों को ऑन में दिया जाता है, उससे ज्यादा ब्लैक मनी के रूप में दिया जाता है। नीलामी केवल दिखावा है। बहरहाल खिलाड़ियों को खेल के पैसे मिलें, इसमें क्या आपत्ति लेकिन क्रिकेट में, आई.पी.एल. में खेलने वालों को दीगर खेलों की अपेक्षा कई गुना ज्यादा पैसे क्यों मिलें। खेल में भी वर्गभेद। क्रिकेट हो, यह भी एक खेल है। लेकिन पैसों का खेल क्यों हो। आई.पी.एल. में खेलने वाले खिलाड़ी क्रिकेट के टेस्ट या वन डे में वैसा प्रदर्शन नहीं करते। इसका उत्तर साफ है। आई.पी.एल. में बने रहने, मतलब धन कमाने का अवसर बना रहे, इसलिए खिलाड़ी आई.पी.एल. में अच्छे से अच्छा प्रदर्शन करते हैं। एक और बात आई.पी.एल. में केवल बल्लेबाजी पर ही चर्चा केन्द्र में होती है। बल्लेबाज की ही चर्चा होती है, गेंदबाजी और गेंदबाज को वैसा महत्व नहीं दिया जाता- सेंचुरी बना लेनेवाला उस दिन का हीरो बन जाता है, तीन-चार विकेट लेनेवाला चर्चा से बाहर ही रहा आता है। यह यूं ही नहीं होता, यह इसके प्रचार के एक जरूरी माध्यम के कारण किया जाता है। पूरा आई.पी.एल. पूंजी के इर्द-गिर्द घूमे, इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर सारे हथकंडे अपनाए जाते हैं।
क्रिकेट के जो भी प्रोग्राम बन रहे हैं वे सब विज्ञापन एजेंसियों, न्यूज चैनल्स के द्वारा बनाए जा रहे हैं इसलिए आज साल भर क्रिकेट हो रहा है। 44-45 डिग्री की गर्मी हो अथवा वर्षाऋतु क्रिकेट हो रहा है- क्योंकि यह पूंजी का खेल बन गया है। पूंजी गर्मी, बरसात, धूप, सर्दी में आराम नहीं करती-आराम करने वाली पूंजी डूबत खाता बन जाती है इसलिए क्रिकेट चलता रहे, क्योेंकि पूंजी चाहती है कि क्रिकेट चले, भले भयानक गर्मी हो। पूंजी अपने लिए बाजार तलाशती है, खेलों में यहां (अपने देश में) क्रिकेट एक बााार बना दिया गया है। मनोरंजन और केवल मन का रंजन नहीं रहा यह उद्योग बनकर पूंजीवाद का रंजक बन गया है। क्रिकेट अब क्रिकेटोरंजन बन गया है। इसीलिए कार्पोरेट, कार्पोरेट के अखबार, कार्पोरेट अखबारों में पूंजीवाद की वकालत करने वाले कॉलम राइटर्स आई.पी.एल. की जबरदस्त, अद्भुत सफलता की दुंदुभी बजा रहे हैं। हर कोई लिख रहा है खूब सफल रहा।
आई.पी.एल. अब क्रिकेट का इंद्रजाल बन गया है। पुराने समय में सामंतवाद अपने हित में ऐन्द्रजालिक युक्तियों का सहारा लेता था। आज पूंजीवादी अपने हित में खेल, मनोरंजन, धर्म, शिक्षा, स्वास्थ्य सब का उपयोग ग्लैमर (इंद्रजाल) के तहत कर रहा है। खेल के मैदान में नाच-गाना उस ऐन्द्रजालिक युक्ति का हिस्सा है। खेल के मैदान में दर्शक चिल्लाते ही हैं। चिल्लाने से, आवाज निकालने से खिलाड़ियों का उत्साह बढ़ता है। दर्शकों का उत्साह में चिल्लाना स्वाभाविक है। वे खेल देखने जाते हैं, मानसपाठ सुनने नहीं गए होते।  लेकिन आई.पी.एल. में दर्शकों को चिल्लाने के लिए नाच-गाना का उत्प्रेरक तत्व रख दिया गया है, यह पूंजीवाद की खूबी है। दर्शकों को पता ही नहीं कि पूंजीवाद क्या-क्या गुल खिला रहा है। मनोरंजन जब उद्योग बन गया और पूरी तरह कार्पोरेट के हाथों में दे दिया गया है तो कार्पोरेट अपने लाभ के लिए हर तरह के उपक्रम करेगा- उसे विशुध्द मनोरंजन में पूंजी का तड़का डालना ही है तभी उसका धन लाभ सहित वापस होगा। विशुध्द पैसे का खेल आई.पी.एल. में दर्शकों को खेल के साथ और बहुत कुछ दिखाया जाता है। इस और कुछ दिखाने में पूंजीवाद का विनियोग लाभ की गारंटी देता है।  वह केवल विनियोग करता है। ऐसा कहा गया कि 5वें आई.पी.एल. में टी.वी. दर्शकों की संख्या कम हुई लेकिन मैदान भरे रहे। दर्शकों के बीच कुछ को देखकर जुजुप्सा पैदा होती है। देश में समानता लाने की बात करने वाले कैसा मुखौटा लगाए घूमते हैं। आई.पी.एल. को लेकर समाज में चलने वाली विपरीत चर्चाओं की इन्हें परवाह नहीं क्योंकि पूंजी कभी किसी की परवाह नहीं करती। पूंजीवाद बडे क़्रूर तरीके से प्रवेश करता है। इसने ढाका के कारीगरों के अंगूठे काट लिए थे। जब धन कमाना ही एकमात्र उद्देश्य हो जाए तो इधर-उधर की आलोचना पर कान नहीं दिया जाता। अपनी आलोचनाओं पर ध्यान देकर वक्त बर्बाद नहीं किया जाता। इन तमाम आलोचनाओं के बावजूद आई.पी.एल. चलेगा, आगे भी होगा क्योंकि धन कमाने की मशीन हाथ से वे जाने नहीं देना चाहेंगे। लेकिन खेल का जो नुकसान होगा, वह बाद में जनता भोगेगी। खेल केवल पैसा बनते जाएगा।  कहते हैं आई.पी.एल. में सौ खिलाड़ियों को रोजी मिली। ठीक है, उन्हें रोजी मिली। वे इस व्यवस्था के लिए चल सम्पत्ति बना दिए गए। कुछ लोगों को इस बात की चिढ़ होती है कि अब हर एक क्रिकेट पर बात कर रहा है- मानो क्रिकेट पर बात करना कुछ शिष्टवर्ग के लिए आरक्षित है। दरअसल ऐसी सोच के लोग खेल के जनवादी स्वरूप की प्राप्ति से ही नाराज हो जाते हैं। क्रिकेट पर अगर आमजन बात कर रहे हैं तो आमजन तक उसकी पहुंच की प्रशंसा की जाना चाहिए। क्रिकेट कुछ लोगों तक ही सीमित क्यों रहे। हर खेल की अपनी तकनीक और विधि होती है। क्रिकेट के तकनीक को समझने वाले बढ़े हैं तो इसमें प्रसन्नता की बात है, लेकिन सवाल क्रिकेट की लोकप्रियता और आमजन तक उसकी पहुंच का ही मामला नहीं है। क्रिकेट की आमजन तक पहुंच पर नाक भौं चढ़ाने वाले उसके इन्द्रजाल बन जाने पर खुश हैं कि खेल में तड़क-भड़क बढ़ी है। दरअसल खेल से किसी को क्यों दुश्मनी होगी, दु:ख इसका कि क्रिकेट को खेल नहीं रहने दिया जा रहा है उस पर पूंजी की बुरी नार लग गई है।
मुक्तिबोध की कविता
सत्ता के परब्रह्म
ईश्वर के आस-पास,
सांस्कृतिक लहँगों में
लफंगों का लास-रास
खुश होकर तालियाँ
देते हुए गोलमटोल
बिके हुए मूर्खों के
होठों पर हीन रास
शब्दों का अर्थ जब।

पाठय पुस्तकों की गुणवत्ता 28, May, 2012, प्रभाकर चौबे

कक्षा ग्यारहवीं की राजनीतिशास्त्र की पुस्तक में एक कार्टून को लेकर संसद में जबरदस्त विरोध हुआ और मानव संसाधन मंत्री को आश्वासन देना पड़ा कि एन.सी.ई.आर.टी. की समस्त पाठय पुस्तकों से कार्टून हटा लिए जाएंगे। मानव संसाधन मंत्री ने क्षमायाचना भी की और साफ किया कि इन पाठय पुस्तकों में जो कार्टून हैं वे उनके कार्यकाल के नहीं हैं। यह सही बात भी है। बहरहाल उस पाठय पुस्तक के किसी पृष्ठ पर छपे कार्टून को लेकर हंगामा हुआ लेकिन खेद का विषय है कि संसद में पाठय पुस्तकों, पाठय-सामग्री पर बात तक नहीं उठाई गई, चर्चा की तो बात ही अलग। कार्टून पर बात उठाने वाले सांसद पी.एल. पूनिया ने भी एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा प्रकाशित पाठय पुस्तकों पर बात नहीं चलाई। उनके अनुसार उनके पुत्र ने पुस्तक पर प्रकाशित कार्टून की ओर उनका ध्यान आकर्षित कर उसका अर्थ पूछा था। श्री पूनिया उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति हैं। उनमें पाठय पुस्तक देखने, हर पृष्ठ का अवलोकन करने की उत्सुकता जागृत नहीं हुई। शिक्षित पालकों से उम्मीद की जाती है कि वे बच्चे क्या पढ़ रहे हैं, इस पर ध्यान देंगे। लेकिन अफसोस की बात है कि न केवल पालकों ने वरन् संसद में सांसदों तक ने एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा प्रकाशित पुस्तकों पर चर्चा नहीं की है। पता नहीं इनमें से कितनों ने पाठय-पुस्तकों का सम्पूर्ण अवलोकन किया है। लगता है सांसदों को इस बात में रुचि नहीं कि वे यह जानें कि उनके व देश के लाखों पालकों के बच्चे क्या पढ़ रहे हैं। अगर कार्टून पर चर्चा नहीं हुई होती तो पुस्तक के जिस पृष्ठ पर कार्टून प्रकाशित हुआ वह पृष्ठ और वह पुस्तक संसद में कभी पेश नहीं होते। बड़ी विडम्बना है। बच्चों की शिक्षा को लेकर सांसदों की ऐसी उदासीनता दु:खद है और ऐसा लगता है कि उन्हें शिक्षा पर सोचने का समय नहीं है। शिक्षा पर बात का मतलब शिक्षा विभाग के बजट पर बहस ही नहीं है। शिक्षा विभाग को कितना प्रतिशत धन दिया जा रहा है, यही नहीं है। साथ ही कालेजों, स्कूलों के भवन, शिक्षकों की संख्या, वेतन, नियुक्ति के नियम, अनुदान आदि पर बात कर लेना, वह भी बजट मांग के समय, पर्याप्त नहीं है। पाठय पुस्तक में क्या गलत छप गया, इसे ही दर्शाते रहना और हंगामा करना भी शिक्षा पर सरोकार प्रकट करना नहीं हो जाता। वर्तमान मानव संसाधन मंत्री कहते हैं कि पुस्तक में छपा कार्टून उनके समय का नहीं है, चला आ रहा है। वे सही कहते हैं, लेकिन उनके इस सही कथन से यह सवाल तो उठता ही है कि तीन साल से वे मानव संसाधन मंत्री हैं, एक बार भी एन.सी.ई.आर.टी. की पाठय पुस्तकों को देखने की बात तक नहीं सोची। देखा नहीं। अगर देखा नहीं तो उसमें क्या बदलाव हो यह कैसे सुझा सकते हैं। जो चल रहा है, उसे चलने दिया तो पाठय सामग्री निर्माण में उनका क्या दिशानिर्देश रहा। और यह सवाल भी उठता है कि पिछले कई सालों से जो पाठय पुस्तक चलाई जा रही है उसमें समयानुकूल परिवर्तन नहीं किया गया। वही पुराने पाठ हर साल पढ़ाए जाते रहे। क्या शिक्षा मंत्री का इतना ही काम है कि दसवीं बोर्ड परीक्षा में बैठना अनिवार्य रहे अथवा ऐच्छिक, कितने केन्द्रीय विश्वविद्यालय खुलें, तकनीकी प्रवेश परीक्षा पूरे देश में कॉमन परीक्षा हो या प्रदेश स्तर पर हो। दरअसल यह अधोसंरचना का सवाल है। केवल अधोसंरचना से शिक्षा का उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता। शिक्षा के उद्देश्य को पूरा करने के लिए इस बात की भी जरूरत है कि किताबें कैसी हैं, उनमें पढ़ने की सामग्री का स्तर क्या है और उनकी छपाई कैसी है।
शानदार भवन बन जाएं, पर्याप्त शिक्षक हों, लेकिन पाठय सामग्री उच्चकोटि की न हो, पाठय सामग्री उच्च कोटि की हो, लेकिन छपाई निम्न स्तर की हो तो शिक्षा देने का काम ठीक से नहीं किया जा सकता। पुस्तकें ऐसी छपी हों कि बच्चे आकर्षित भी तो हों-पुराने जमाने के फिल्मी गानों की किताब की तरह छपाई न हो। एकदम सफेद कागज पर सुंदर छपाई हो और अगर चित्र दिए गए हैं तो वे स्पष्ट दिखाई दें। यह नहीं कि क्या चित्र है, यही समझ में न आए। ऑंखें गड़ा कर किताब पढ़ें बच्चे। ऐसा तो न हो। इन बातों का ध्यान शिक्षा मंत्री को ही रखना है और अपने मातहत काम कर रही संस्था को निर्देशित करना है। लगता है केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री ने अपने कार्यकाल में एक बार भी, एक भी पाठय पुस्तक का (जिसे एन.सी.ई.आर.टी. ने प्रकाशित कराया है) अवलोकन नहीं किया अन्यथा  पुस्तकों की ऐसी घटिया छपाई नहीं हुई होती।
एन.सी.ई.आर.टी. ने सी.बी.एस.सी. के लिए पाठयक्रम तैयार कराया और प्रकाशन की व्यवस्था भी शायद उसी ने की। वर्तमान में किताबें छपाई गई हैं उनकी गुणवत्ता निम्नकोटि की है। कक्षा छ: से कक्षा बारह तक की प्राय: हर पुस्तक की छपाई खराब है। न तो कागज उत्तम कोटि का है, उत्तम कोटि की बात छोड़ें, कागज मध्यम कोटि का भी नहीं है। पृष्ठों पर जो चित्र या कार्टून छापे गए हैं वे दागित हैं, कहीं-कहीं धब्बे ही हैं। चित्र ही समझ में नहीं आता। ऐसी पुस्तकें क्या पढ़ने-पढाने का उद्देश्य पूरा करेंगी। और यह इस वर्ष का मामला नहीं है। कई वर्षों से ऐसा होते आ रहा है। शिक्षा-सत्र समाप्त होते तक बच्चों की पुस्तकों के कव्हर पृष्ठ ऊघड़ जाते हैं अंदर के पन्ने बाहर निकल आते हैं क्योंकि बाइंडिंग का स्तर ठीक नहीं होता। छत्तीसगढ़ पाठय पुस्तक निगम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की हालत भी ऐसी ही है। दरअसल इस पर सांसदों को मंत्रीजी का ध्यान आकृष्ट करना चाहिए। एन.सी.ई.आर.टी. को भंग करने से निजी क्षेत्र की दखलंदाजी बढ़ेगी, पुस्तकों की कीमतों में इजाफा होगा- अभी ही सामान्य ज्ञान की पुस्तक जो निजी प्रकाशन से ली जाती है, का मूल्य 130 रुपए है और पृष्ठ संख्या मात्र 64 है।
एन.सी.ई.आर.टी. की पाठय पुस्तकें तैयार करने में स्कूली शिक्षकों का कितना योगदान होता है, यह पता नहीं लेकिन कक्षा नवीं की किताब डेमोक्रेटिक  पॉलिटिक्स भाग-1 में टेक्स्ट बुक डेवलपमेंट कमेटी में नामों की (पद सहित) जो सूची है उसमें एक भी स्कूली शिक्षक का नाम नहीं है। हाँ, इस डेवलपमेंट कमेटी में विश्वविद्यालय, महाविद्यालय के योग्य शिक्षकों सहित सामाजिक संगठनों के विद्वान जरूर हैं। हाँ, डॉ. योगन्द्र यादव ने इस पुस्तक में 'लेटर फार यू' लिखा है उसमें यह उल्लेख जरूर है कि पाठय पुस्तक तैयार करने में स्कूली शिक्षकों की मदद ली गई- शायद सेमिनार तक ही उनकी भूमिका रही हो, अथवा पाठ तैयार किया हो। होना यह चाहिए कि इस डेवलमेंट कमेटी में भी स्कूली शिक्षक हों, घटिया छपाई, घटिया पेपर, घटिया बाईंडिंग से पाठय-सामग्री क्या खाक पढ़ी जाएगी। 

सोमवार, 14 मई 2012

उच्च शिक्षादिशा व दशा


पिछले हफ्ते मेरा निबंध कालेज शिक्षकों की रिटायरमेंट उम्र 65 वर्ष करने को लेकर था। अपने इस निबंध में रिटायरमेंट की उम्र बढ़ाने पर समाजशास्त्रीय समीक्षा की जाए, ऐसा जोर था मेरा। इस निबंध को लेकर कुछ मित्रों की राय रही कि कालेज शिक्षकों की रिटायरमेंट की उम्र इसलिए बढ़ाई गई है क्योंकि कालेजों में पढ़ाने युवा शिक्षकों की कमी हो गई है। कुछ का कहना रहा कि अब युवा वर्ग कालेज शिक्षक नहीं बनना चाहता। कालेज में शिक्षक बनने से कतरा रहे हैं युवक। इसीलिए प्राय: हर कालेज में शिक्षकों की कमी है। अगर वर्तमान में 62 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुके शिक्षकों को रिटायर कर दिया जाएगा तो एक और कमी का सामना कालेज प्रशासन को करना होगा। साथ ही कालेज विद्यार्थियों की पढ़ाई का भारी नुकसान होगा, वर्तमान शिक्षकों को रिटायर कर दिया गया तो वहां पढ़ाने वाले ही नहीं रहेंगे। कहां तो मैं सोच रहा था कि नए युग में औसत आयु बढ़ने और कार्यक्षमता में सुधार के कारण रिटायरमेंट की आयु 62 से 65 वर्ष की गई, कहां यह बताया जा रहा है कि कालेजों में शिक्षकों की कमी है, अगर वर्तमान कार्यरत शिक्षकों को रिटायर कर दिया गया तो पढानेवाले ही नहीं बचेंगे। मतलब सरकार कालेज के विद्यार्थियों की चिंता कर रही है। यह भी बताया जा रहा कि कालेज में शिक्षकों की कमी इसलिए है कि आज युवा शिक्षक बनना नहीं चाहते- न केवल कला विषयों में वरन् विज्ञान, गणित विषयों में भी इसी कारण शिक्षकों की कमी है। आज के समय जबकि कालेज शिक्षकों का वेतन अच्छा हो गया है, नए नियुक्त कालेज शिक्षक को ही 35 से 40 हजार प्रतिमान वेतन मिलता है, ऐसे समय कोई युवा कालेज शिक्षक न बनना चाहे, यह बात गले ही नहीं उतरती, आत्मा तक जाने व मन-मस्तिष्क से इस तर्क पर विश्वास कर लेने का सवाल ही नहीं उठता। इस बीच पिछले हफ्ते ही, एक-दो समाचार पत्रों ने राज्य में उच्चशिक्षा की स्थिति पर शोधपूर्ण रिपोर्ट छापी। इनसे, इनमें दिए गए आंकड़ों से पता चला कि राज्य के कालेजों में शिक्षकों के कितने पद रिक्त हैं और रिक्त होने का कारण क्या है। मुझे संतोष हुआ और अपने तर्क पर कायम रहने का बल मिला कि राज्य में 1991 के बाद कालेजों में रिक्त पदों पर भर्ती ही नहीं हो रही है। अभी राज्य में 172 कालेज हैं इनमें 1400 पद रिक्त हैं। गत वर्ष तक पचास प्रतिशत पद एडहाक से सरकार भर लेती थी। इस तरह कालेजों में पचास प्रतिशत नियमित शिक्षक और पचास प्रतिशत एडहाक शिक्षक हुआ करते थे। लेकिन इस वर्ष विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने इस अनुपात पर बंदिश लगा दी है। ठीक किया है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने निर्देश दिया है कि केवल दस प्रतिशत ही एडहाक नियुक्ति की जाए। इस निर्देश के बाद राज्य में उच्च शिक्षा विभाग केवल 180 शिक्षक ही एडहाक नियुक्ति कर सका। आज कालेजों में 180 शिक्षक ही एडहाक पर हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का यह निर्देश एक तरह से सरकार को संकेत है कि कालेजों में ''एडहाकइज्म'' बंद कर सरकार नियमित नियुक्ति करे। लेकिन सरकार ने नियमित नियुक्ति से कन्नी काट ली और शिक्षकों की कमी को रिटायरमेंट आयु बढ़ाकर पूरी करने की चालाकी पूर्ण चाल चल दी। लेकिन इससे राज्य में बेरोजगार घूम रहे, योग्य युवकों की समस्या हल नहीं होगी। बजट मांग के समय सरकार अपनी पीठ थपथपाती रहे। हो सकता है रिटायरमेंट उम्र बढ़ने पर ऐसे कुछ शिक्षक सरकार की जय-जयकार भी करें। लेकिन जो युवक कालेज में नौकरी पाने तरस रहे हैं, सालों से आस लगाए बैठे हैं, उनकी आह भी तो सरकार को लगेगी। कबीर ने कहा है- ''कबिरा हाय गरीब की...'' एडहाक पर कालेज शिक्षकों की नियुक्ति भी मजाक बनकर रह गई है। मजाक क्या, यह बेरोजगारों का शोषण ही है- सितम्बर में नियुक्ति दी जाती है और मई में सेवा से अलग कर दिया जाता है। 12 हजार रुपए प्रतिमाह देकर रायपुर के युवा को कुनकुरी जाने कहा जाता है। ऐसे में वह क्या खुद खाए, क्या परिवार चलाए। देना ही है तो पूरा वेतन (जो नियमित कालेज शिक्षक को मिलता है) दिया जाए। एडहाक का वेतन कम क्यों? एडहाक शिक्षक काम करते हैं, वही काम करते हैं जो नियमित शिक्षक करते हैं। फिर इनके वेतन में अंतर क्यों होना चाहिए। दरअसल राज्य सरकार शिक्षा को चलताऊ ढंग से ले रही है। दरअसल राज्य सरकार का न स्वास्थ्य सेवाओं से सरोकार है, न गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से, न सार्वजनिक परिवहन से. इसीलिए राज्य में उच्च शिक्षा का ऐसा एक भी केन्द्र इन बारह वर्षों में सरकार नहीं खड़ा कर सकी जहां प्रवेश लेने राज्य के बाहर के छात्र होड़ करें। राज्य से बाहर के छात्रों की बात छोड़ दें, राज्य के ही छात्रों व पालकों को यहां के शिक्षा केन्द्रों पर भरोसा नहीं है। इसलिए जो समर्थ हैं उनके बच्चे राज्य से बाहर ही प्राथमिकता दे रहे हैं। जो विवश हैं वे यहां पढ़ा रहे हैं। जिस राज्य में उच्च शिक्षा में प्रवेश की परीक्षा के पेपर आऊट होते रहें, वहां उच्च शिक्षा की दशा-दिशा का क्या हाल होगा, यह आसानी से पता चल जाता है। लॉ युनिवर्सिटी जरूर देश में अपनी गुणवत्ता को लेकर विख्यात है।
छत्तीसगढ़ के सैकडाें बच्चे पुणे, बेंगलोर, चेन्नई, बनारस, दिल्ली में जा रहे हैं। राज्य सरकार का ध्यान पारम्परिक और आधारभूत विषयों की गुणवत्ता सुधारने पर एकदम नहीं है। कालेजों में शिक्षक ही नहीं हैं तो गुणवत्ता कैसे आए- विद्यार्थी श्योर सक्सेस और कुंजियाँ पढ़कर परीक्षा दे रहे हैं, पास हो रहे हैं। शिक्षा में, वह भी उच्च शिक्षा में ऐसी विडम्बना दु:ख देती है। एक और बात सरकार जब कालेजों में नियमित  नियुक्ति नहीं कर रही है तो हर जुलाई में 5-7 कालेज क्यों खोल रही है। यह भी विडम्बना है या तो मतदाताओं को रिझाने का एक तरीका है।
बहरहाल यह तर्क जंचता नहीं कि युवा अब कालेजों में शिक्षक नहीं बनना चाहते। दरअसल, सरकार की उच्चशिक्षा की नीति में ही खोट है। जब शिक्षाकर्मी (अब इन्हें पंचायत शिक्षक कहा जाने लगा है) बनने लाखों युवा भर्ती-परीक्षा में शामिल होते हैं, तब महाविद्यालय के शिक्षक बनने के प्रति अरुचि नहीं हो सकती। एक और बात यह कि महाविद्यालयों के शिक्षकों का समाज, शासन, प्रशासन राजनीति हर क्षेत्र में पूरा सम्मान है। यह सही है कि समय के अनुसार समाज में इंजीनियरिंग या कहें समग्रता में तकनीकी शिक्षा के प्रति सम्मान बढ़ा है और एक दौड़-सी शुरु हो गई है। हर घर में एक इंजीनियरिंग पास या पढ़ रहा युवा मिल जाएगा। पारम्परिक शिक्षा के प्रति सम्मान कम है अगर सरकार कालेजों में शिक्षकों की नियुक्ति शुरु करे तो इन विषयों की ओर युवा दौड़ेंगे। एक और बात अब इन बीस वर्षों के अनुभव के बाद निजी क्षेत्र की नौकरी  की अपेक्षा सरकारी क्षेत्र को प्राथमिकता का मन युवावर्ग में बना है। दरअसल सरकार की उच्च शिक्षा की नीति ही व्यवहारिक नहीं है- हाँ, सरकारी बयानों में उच्चशिक्षा को लेकर आप्त वचन जरूर सुनाई पड़ जाएंगे। वैसे सम्पूर्ण शिक्षा को लेकर ही सरकार इसी तरह प्रवचन-सा देती है। राज्य में कालेजों में शिक्षकों की कमी बयानों से दूर नहीं होगी-सरकार को अपनी तिजोरी में से इस क्षेत्र के लिए भी रखना चाहिए। नियुक्ति के दरवाजे खुलें, युवा आने तैयार हैं। योग्य भी हैं। 
कालेज शिक्षक क्यों नहीं बनेंगे- हजारों युवा स्लेट उत्तीर्ण कर बेरोजगार बैठे हैं। सात हजार युवा जून-जुलाई में कैट परीक्षा में शामिल होने वाले हैं।
मुक्तिबोध की कविता 
काट दो यदि तना
तो फिर प्राण-रस
किस राह से पहुँचे भला
उस डाल तक, जिस पर विकसित पतियाँ
शायद खिले जिस पर सुनहला फूल।

शनिवार, 12 मई 2012

सिवलि सोसायटी और जन प्रतिनिधि


लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में सरकार और जनता के बीच सम्बन्ध  'संवादी' का होना चाहिए लगातार संवाद चले । ऐसा संबंध तभी होगा जब दोनों के बीच मैत्रीपूर्ण रिश्ता हो। अन्यथा दोनों के बीच खींचतान चलती रहेगी । लोकतंत्र में जनता और सरकार के बीच फर्क नहीं होता - सरकार जनता की होती है और इस अर्थ में जनता ही सरकार होती है और सरकार जनता होती है । लेकिन ऐसा हो नहीं रहा । हो यह रहा है कि जनता अपनी सरकार चुन देती है और सरकार खुद को जनता से ऊपर समझ लेती है - सरकार और जनता के बीच भेद खड़ा होता है, दीवार बन जाती है । केवल चुने जाने के लिए जनता को सर्वोपरि का दर्जा देने का ढकोसला किया जाता है । ऐसा कहना भी ठीक नहीं कि जनप्रतिनिधि जनता के नौकर हैं नौकर कहना जनप्रतिनिधियों का अपमान है और जनता का भी अपमान है । लोकतंत्र में न कोई नौकर होता न कोई सेवक-सब बराबर के होते हैं । जनता में सरकार समाहित है और सरकार में जनता । जनता ने ही संविधान को अंगीकार  किया है, ऊपर बैठे किसी ने या सरकार ने संविधान थोपा नहीं है । थोपने का कम सांमती व्यवस्था में होता था । लोकतंत्र में जनता ने स्वीकार किया है और अपने हित में काम करने के लिए कुछ प्रतिनिधियों का, अपने में से, चुनाव किया है। लोकतंत्र में तलवार की ताकत से राजा नहीं बनता, जनता की पसन्द का ही प्रतिनिधि बनता है । इसलिए जो चुनकर आए हैं वे ही जनता के प्रतिनिधि हैं - पंचायतों से लेकर देश की सबसे बड़ी सभी संसद तक जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधि हैं । जनता के प्रतिनिधियों को छोटा मानना लोकतंत्र और अंतत: जनता को छोटा मानना है । जो भी चुनकर गए हैं वे जनता के प्रतिनिधि है । ऐसे चुने गए लोगों को ही जनता के बारे में निर्णय लेने का हक है - यह उन्हें जनता ने दिया है । देश में और भी संगठन होते हैं, जो जनता के लिए जनता के बीच काम करते हैं, लेकिन ऐसे संगठन, ऐसे व्यक्ति जनप्रतिनिधि नहीं होते । ऐसे संगठन किसी समूह, गुट वर्ग के प्रतिनिधि होते हैं। वे उसी हैसियत से बातें रखते हैं । केवल मजदूर संगठन ही सम्पूर्ण बदलाव की माँग करते हैं, लेकिन तकनीकी रूप से मजदूर संगठन भी जनता के प्रतिनिधि नहीं है । जब तक मजदूरों का राज न आ जाए वे जनता के प्रतिनिधि नहीं कहला सकते । लोकतंत्र में किसी सनक के तहत काम नहीं किया जाता या निर्णय नहीं लिया जाता । राजा की मर्जी जैसी बात नहीं होती । इस लोकतंत्र में राजनीतिक प्रक्रिया के तहत काम होता है - चुनाव से लेकर निर्णय तक क्योंकि जनता ने अपने संविधान में ऐसी व्यवस्था कर दी है । जरूरी नहीं कि सरकारें हर काम ठीक ही करें । जन विरोधी निर्णय भी होते हैं । उन पर अंकुश लगाने विपक्ष होता है, विपक्ष भी राजनीतिक प्रक्रिया का अंग होता है । सामाजिक संगठन भी जनता के हित में कार्यक्रम पेश करते हैं, सुझाव देते हैं। जनविरोधी नीतियों का विरोध करते हैं । ऐसा करना लोकतांत्रिक अधिकार है । निर्णय राजनीतिक व्यवस्था में निर्धारित प्रक्रिया के तहत ही होता है । इसलिये जनता के लिए, उसके हित में काम करने वाले संगठन सरकार पर दबाव बनाएं, राजनीति को जनहित की ओर मोड़ें ? इतना दबाव बनाएं कि सरकार विवश जाए और जनहित में निर्णय ले लेकिन सब कुछ जन प्रतिनिधियों को ही करने दिया जाए - अन्यथा देश में अराजकता फैल जायेगी। जरूरी नहीं कि हर कोई चुनाव में शामिल हो, यह जीतकर जाए तभी से बात करने का अधिकार मिले। चुनाव से बाहर रहकर भी जन दबाव, जनचेतना के लिए काम किया जा सकता है, किया भी जा रहा है। लेकिन निर्णय तो जनप्रतिनिधि ही लेंगे । उन्हें ही लेना है । जनता से ऊपर सामाजिक संगठन नहीं है और क्योंकि जनप्रतिनिधि जनता के बीच से आते हैं, जनप्रतिनिधि इस अर्थ में जनता हैं, इसलिए जनप्रतिनिधि सारे गैर राजनीतिक संगठनों से ऊपर हैं। जनता की आवाज उठाने वाले संगठनों, व्यक्तियों का जनता सम्मान करती है, लेकिन उन्हें निर्णय का अधिकार जनता ने नहीं दिया। जनता ने अपने प्रतिनिधियों को ही निर्णय का अधिकार दिया है । इसलिए निर्णय लेने की स्थिति पाना है तो जनता द्वारा चुना जाना होगा ।
      लोकपाल विधेयक को लेकर सिविल सोसायटी ने अपना प्रारूप सरकार के प्रतिनिधियों को सौंप दिया। अब संसद को आगे का काम करना है । इसलिए सिविल सोसायटी को अब प्रतिक्षा करनी चाहिए। अगर लोकपाल बिल उम्मीद के अनुसार न हुआ,  ढीला-ढाला हुआ तो फिर से जनजागृति हो, दबाव बनाया जाए। सरकार, हमारे जनप्रतिनिधि (जो विपक्ष में हैं) करते क्या हैं, यह तो देखें । थोड़ा धीरज रखें । खुद को जनप्रतिनिधियों से ऊपर समझ लेना जनता को छोटा समझना है । जनप्रतिनिधियों को बेईमान कहते जाना भी अच्छा नहीं । हर दल हर विचार के बड़े, छोटे दल के प्रतिनिधि वहाँ हैं। वे सब मिलकर ही संसद हैं । और जनता के प्रतिनिधि, जनता के प्रति जवाबदार हैं। सिविल सोसायटी ने एक काम किया । अब संसद को करने दिया जाना चाहिए ।
      मीडिया के सरोकार एकदम बदल गए - अब वह क्षण-क्षण की रिपोर्टिंग के लिये है । सरकार, सिविल सोसायटी कुछ और राजनीतिक दलों ने कुछ ऐसा संयोग पैदा किया है कि बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के तेजी से लागू करते समय ही भ्रष्टाचार, कालाधान जैसे मुद्दों पर जन आंदोलन खड़ा हो गया जिससे नवउदारवादी नीतियां लागू करने की दिशा में चलने की ओर से जनता का ध्यान बंटा रहे । अन्ना हजारे कहते हैं कि अभी दूसरी आजादी लानी है । लेकिन इस दूसरी आजादी में मजदूर, किसान मेहनतकश, मध्यवर्ग की आजादी को स्पष्ट नहीं करते । भ्रष्टाचार मिट जाने मात्र से क्या समावेशी विकास का उद्देश्य पूरा हो जाएगा। भ्रष्टाचार विहीनता में भी अगर आर्थिक नीतियां ऐसी ही बाजार आधारित रहीं तो लाभ कार्पोरेट और उससे जुड़े वर्ग का ही होगा। समतावादी समाज बनने पर ही दूसरी आजादी आएगी। संविधान, कानून-कायदे, विधयेक की धारओं के उद्धारण दे देकर आम जन को भटकाया जा रहा है । इन नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के सवाल को उठाने के बदले टुकड़े-टुकड़े में मुद्दे उठाए जा रहे हैं और वाहवाही लूट रहे हैं ।
      खाद पर से सब्सिडी हटाने का मामला उस वर्ग में सनसनी पैदा नहीं करता जो भ्रष्टाचार दूर करने लड़ रहे हैं । जो खुद को सिविल सोसायटी कहते हैं वे किसानों की इस जबरदस्त मार पर ध्यान नहीं देते । वे भी उस बड़े मुद्दे के साथ हैं । पता नहीं इन सिविल सोसायटी को कहां-कहां से अनुदान मिल जाता है । खाद पर से सब्सिडी हटाने के सरकार के निर्णय से निजीकरण के हिमायती अखबार प्रसन्नता व्यक्त करते रहे और सरकार को साधुवाद देते रहे। एकाध भाषायी समाचार पत्र को छोड़कर किसी ने इस और ध्यान नहीं दिया । ऐसे अखबार भी इलेक्ट्रानिक मीडिया से प्रतिस्पर्धा करने में भिड़ गए कि किस तरह यादा सनसनी फैलाई जाए । सरकार ने ही खाद पर से सब्सिडी हटाने भाजपा के विरोध का सवाल ही नहीं उठाता ।
      यह भी तय है कि किसानों की मुसीबत में न सिविल सोसायटी लड़ेगी न बड़े राजनीतिक दल न स्वयंसेवी संगठन। और किसान संगठन आवाज उठाए भी तो इस हल्ला-गुल्ला में उनकी आवाज कौन सुनेगा ।