मंगलवार, 5 जून 2012

क्रिकेट का मायाजाल 04, Jun, 2012, प्रभाकर चौबे

चार अप्रैल से शुरु हुआ क्रिकेट का आई.पी.एल. सताईस मई को समाप्त हुआ। तिरपन दिनों तक धूमधाम रही। न्यूज चैनल्स को मसालेदार चर्चा के लिए तिरपन दिन थोक में मिले। इन तिरपन दिनों के खेल में स्पष्ट फिक्सिंग से लेकर सट्टेबाजी तक की जमकर चर्चा हुई। मतलब खेल के मैदान के अंदर और बाहर दोनों में पैसों का जोर रहा। सट्टेबाजी की खबरें तो न्याू चैनल्स तक में आती रही। दरअसल अपने यहां क्रिकेट ने सट्टा के लिए एक और क्षेत्र खोल दिया है। वैसे अब क्रिकेट खेल ही नहीं रह गया है। क्रिकेट एक मनोरंजन उद्योग बन गया है जिसमें करोड़ों की पूंजी लगाई गई है। मैदान में खिलाड़ी खेलते हैं और बाहर दूसरे लोग। खिलाड़ी भी खिलाड़ी नहीं रहे, उन्हें वस्तु बना दिया गया है जिनकी खरीद-बिक्री की जा रही है। यह भी आरोप लगा कि जितना पैसा खिलाड़ियों को ऑन में दिया जाता है, उससे ज्यादा ब्लैक मनी के रूप में दिया जाता है। नीलामी केवल दिखावा है। बहरहाल खिलाड़ियों को खेल के पैसे मिलें, इसमें क्या आपत्ति लेकिन क्रिकेट में, आई.पी.एल. में खेलने वालों को दीगर खेलों की अपेक्षा कई गुना ज्यादा पैसे क्यों मिलें। खेल में भी वर्गभेद। क्रिकेट हो, यह भी एक खेल है। लेकिन पैसों का खेल क्यों हो। आई.पी.एल. में खेलने वाले खिलाड़ी क्रिकेट के टेस्ट या वन डे में वैसा प्रदर्शन नहीं करते। इसका उत्तर साफ है। आई.पी.एल. में बने रहने, मतलब धन कमाने का अवसर बना रहे, इसलिए खिलाड़ी आई.पी.एल. में अच्छे से अच्छा प्रदर्शन करते हैं। एक और बात आई.पी.एल. में केवल बल्लेबाजी पर ही चर्चा केन्द्र में होती है। बल्लेबाज की ही चर्चा होती है, गेंदबाजी और गेंदबाज को वैसा महत्व नहीं दिया जाता- सेंचुरी बना लेनेवाला उस दिन का हीरो बन जाता है, तीन-चार विकेट लेनेवाला चर्चा से बाहर ही रहा आता है। यह यूं ही नहीं होता, यह इसके प्रचार के एक जरूरी माध्यम के कारण किया जाता है। पूरा आई.पी.एल. पूंजी के इर्द-गिर्द घूमे, इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर सारे हथकंडे अपनाए जाते हैं।
क्रिकेट के जो भी प्रोग्राम बन रहे हैं वे सब विज्ञापन एजेंसियों, न्यूज चैनल्स के द्वारा बनाए जा रहे हैं इसलिए आज साल भर क्रिकेट हो रहा है। 44-45 डिग्री की गर्मी हो अथवा वर्षाऋतु क्रिकेट हो रहा है- क्योंकि यह पूंजी का खेल बन गया है। पूंजी गर्मी, बरसात, धूप, सर्दी में आराम नहीं करती-आराम करने वाली पूंजी डूबत खाता बन जाती है इसलिए क्रिकेट चलता रहे, क्योेंकि पूंजी चाहती है कि क्रिकेट चले, भले भयानक गर्मी हो। पूंजी अपने लिए बाजार तलाशती है, खेलों में यहां (अपने देश में) क्रिकेट एक बााार बना दिया गया है। मनोरंजन और केवल मन का रंजन नहीं रहा यह उद्योग बनकर पूंजीवाद का रंजक बन गया है। क्रिकेट अब क्रिकेटोरंजन बन गया है। इसीलिए कार्पोरेट, कार्पोरेट के अखबार, कार्पोरेट अखबारों में पूंजीवाद की वकालत करने वाले कॉलम राइटर्स आई.पी.एल. की जबरदस्त, अद्भुत सफलता की दुंदुभी बजा रहे हैं। हर कोई लिख रहा है खूब सफल रहा।
आई.पी.एल. अब क्रिकेट का इंद्रजाल बन गया है। पुराने समय में सामंतवाद अपने हित में ऐन्द्रजालिक युक्तियों का सहारा लेता था। आज पूंजीवादी अपने हित में खेल, मनोरंजन, धर्म, शिक्षा, स्वास्थ्य सब का उपयोग ग्लैमर (इंद्रजाल) के तहत कर रहा है। खेल के मैदान में नाच-गाना उस ऐन्द्रजालिक युक्ति का हिस्सा है। खेल के मैदान में दर्शक चिल्लाते ही हैं। चिल्लाने से, आवाज निकालने से खिलाड़ियों का उत्साह बढ़ता है। दर्शकों का उत्साह में चिल्लाना स्वाभाविक है। वे खेल देखने जाते हैं, मानसपाठ सुनने नहीं गए होते।  लेकिन आई.पी.एल. में दर्शकों को चिल्लाने के लिए नाच-गाना का उत्प्रेरक तत्व रख दिया गया है, यह पूंजीवाद की खूबी है। दर्शकों को पता ही नहीं कि पूंजीवाद क्या-क्या गुल खिला रहा है। मनोरंजन जब उद्योग बन गया और पूरी तरह कार्पोरेट के हाथों में दे दिया गया है तो कार्पोरेट अपने लाभ के लिए हर तरह के उपक्रम करेगा- उसे विशुध्द मनोरंजन में पूंजी का तड़का डालना ही है तभी उसका धन लाभ सहित वापस होगा। विशुध्द पैसे का खेल आई.पी.एल. में दर्शकों को खेल के साथ और बहुत कुछ दिखाया जाता है। इस और कुछ दिखाने में पूंजीवाद का विनियोग लाभ की गारंटी देता है।  वह केवल विनियोग करता है। ऐसा कहा गया कि 5वें आई.पी.एल. में टी.वी. दर्शकों की संख्या कम हुई लेकिन मैदान भरे रहे। दर्शकों के बीच कुछ को देखकर जुजुप्सा पैदा होती है। देश में समानता लाने की बात करने वाले कैसा मुखौटा लगाए घूमते हैं। आई.पी.एल. को लेकर समाज में चलने वाली विपरीत चर्चाओं की इन्हें परवाह नहीं क्योंकि पूंजी कभी किसी की परवाह नहीं करती। पूंजीवाद बडे क़्रूर तरीके से प्रवेश करता है। इसने ढाका के कारीगरों के अंगूठे काट लिए थे। जब धन कमाना ही एकमात्र उद्देश्य हो जाए तो इधर-उधर की आलोचना पर कान नहीं दिया जाता। अपनी आलोचनाओं पर ध्यान देकर वक्त बर्बाद नहीं किया जाता। इन तमाम आलोचनाओं के बावजूद आई.पी.एल. चलेगा, आगे भी होगा क्योंकि धन कमाने की मशीन हाथ से वे जाने नहीं देना चाहेंगे। लेकिन खेल का जो नुकसान होगा, वह बाद में जनता भोगेगी। खेल केवल पैसा बनते जाएगा।  कहते हैं आई.पी.एल. में सौ खिलाड़ियों को रोजी मिली। ठीक है, उन्हें रोजी मिली। वे इस व्यवस्था के लिए चल सम्पत्ति बना दिए गए। कुछ लोगों को इस बात की चिढ़ होती है कि अब हर एक क्रिकेट पर बात कर रहा है- मानो क्रिकेट पर बात करना कुछ शिष्टवर्ग के लिए आरक्षित है। दरअसल ऐसी सोच के लोग खेल के जनवादी स्वरूप की प्राप्ति से ही नाराज हो जाते हैं। क्रिकेट पर अगर आमजन बात कर रहे हैं तो आमजन तक उसकी पहुंच की प्रशंसा की जाना चाहिए। क्रिकेट कुछ लोगों तक ही सीमित क्यों रहे। हर खेल की अपनी तकनीक और विधि होती है। क्रिकेट के तकनीक को समझने वाले बढ़े हैं तो इसमें प्रसन्नता की बात है, लेकिन सवाल क्रिकेट की लोकप्रियता और आमजन तक उसकी पहुंच का ही मामला नहीं है। क्रिकेट की आमजन तक पहुंच पर नाक भौं चढ़ाने वाले उसके इन्द्रजाल बन जाने पर खुश हैं कि खेल में तड़क-भड़क बढ़ी है। दरअसल खेल से किसी को क्यों दुश्मनी होगी, दु:ख इसका कि क्रिकेट को खेल नहीं रहने दिया जा रहा है उस पर पूंजी की बुरी नार लग गई है।
मुक्तिबोध की कविता
सत्ता के परब्रह्म
ईश्वर के आस-पास,
सांस्कृतिक लहँगों में
लफंगों का लास-रास
खुश होकर तालियाँ
देते हुए गोलमटोल
बिके हुए मूर्खों के
होठों पर हीन रास
शब्दों का अर्थ जब।

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