मंगलवार, 5 जून 2012

पाठय पुस्तकों की गुणवत्ता 28, May, 2012, प्रभाकर चौबे

कक्षा ग्यारहवीं की राजनीतिशास्त्र की पुस्तक में एक कार्टून को लेकर संसद में जबरदस्त विरोध हुआ और मानव संसाधन मंत्री को आश्वासन देना पड़ा कि एन.सी.ई.आर.टी. की समस्त पाठय पुस्तकों से कार्टून हटा लिए जाएंगे। मानव संसाधन मंत्री ने क्षमायाचना भी की और साफ किया कि इन पाठय पुस्तकों में जो कार्टून हैं वे उनके कार्यकाल के नहीं हैं। यह सही बात भी है। बहरहाल उस पाठय पुस्तक के किसी पृष्ठ पर छपे कार्टून को लेकर हंगामा हुआ लेकिन खेद का विषय है कि संसद में पाठय पुस्तकों, पाठय-सामग्री पर बात तक नहीं उठाई गई, चर्चा की तो बात ही अलग। कार्टून पर बात उठाने वाले सांसद पी.एल. पूनिया ने भी एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा प्रकाशित पाठय पुस्तकों पर बात नहीं चलाई। उनके अनुसार उनके पुत्र ने पुस्तक पर प्रकाशित कार्टून की ओर उनका ध्यान आकर्षित कर उसका अर्थ पूछा था। श्री पूनिया उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति हैं। उनमें पाठय पुस्तक देखने, हर पृष्ठ का अवलोकन करने की उत्सुकता जागृत नहीं हुई। शिक्षित पालकों से उम्मीद की जाती है कि वे बच्चे क्या पढ़ रहे हैं, इस पर ध्यान देंगे। लेकिन अफसोस की बात है कि न केवल पालकों ने वरन् संसद में सांसदों तक ने एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा प्रकाशित पुस्तकों पर चर्चा नहीं की है। पता नहीं इनमें से कितनों ने पाठय-पुस्तकों का सम्पूर्ण अवलोकन किया है। लगता है सांसदों को इस बात में रुचि नहीं कि वे यह जानें कि उनके व देश के लाखों पालकों के बच्चे क्या पढ़ रहे हैं। अगर कार्टून पर चर्चा नहीं हुई होती तो पुस्तक के जिस पृष्ठ पर कार्टून प्रकाशित हुआ वह पृष्ठ और वह पुस्तक संसद में कभी पेश नहीं होते। बड़ी विडम्बना है। बच्चों की शिक्षा को लेकर सांसदों की ऐसी उदासीनता दु:खद है और ऐसा लगता है कि उन्हें शिक्षा पर सोचने का समय नहीं है। शिक्षा पर बात का मतलब शिक्षा विभाग के बजट पर बहस ही नहीं है। शिक्षा विभाग को कितना प्रतिशत धन दिया जा रहा है, यही नहीं है। साथ ही कालेजों, स्कूलों के भवन, शिक्षकों की संख्या, वेतन, नियुक्ति के नियम, अनुदान आदि पर बात कर लेना, वह भी बजट मांग के समय, पर्याप्त नहीं है। पाठय पुस्तक में क्या गलत छप गया, इसे ही दर्शाते रहना और हंगामा करना भी शिक्षा पर सरोकार प्रकट करना नहीं हो जाता। वर्तमान मानव संसाधन मंत्री कहते हैं कि पुस्तक में छपा कार्टून उनके समय का नहीं है, चला आ रहा है। वे सही कहते हैं, लेकिन उनके इस सही कथन से यह सवाल तो उठता ही है कि तीन साल से वे मानव संसाधन मंत्री हैं, एक बार भी एन.सी.ई.आर.टी. की पाठय पुस्तकों को देखने की बात तक नहीं सोची। देखा नहीं। अगर देखा नहीं तो उसमें क्या बदलाव हो यह कैसे सुझा सकते हैं। जो चल रहा है, उसे चलने दिया तो पाठय सामग्री निर्माण में उनका क्या दिशानिर्देश रहा। और यह सवाल भी उठता है कि पिछले कई सालों से जो पाठय पुस्तक चलाई जा रही है उसमें समयानुकूल परिवर्तन नहीं किया गया। वही पुराने पाठ हर साल पढ़ाए जाते रहे। क्या शिक्षा मंत्री का इतना ही काम है कि दसवीं बोर्ड परीक्षा में बैठना अनिवार्य रहे अथवा ऐच्छिक, कितने केन्द्रीय विश्वविद्यालय खुलें, तकनीकी प्रवेश परीक्षा पूरे देश में कॉमन परीक्षा हो या प्रदेश स्तर पर हो। दरअसल यह अधोसंरचना का सवाल है। केवल अधोसंरचना से शिक्षा का उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता। शिक्षा के उद्देश्य को पूरा करने के लिए इस बात की भी जरूरत है कि किताबें कैसी हैं, उनमें पढ़ने की सामग्री का स्तर क्या है और उनकी छपाई कैसी है।
शानदार भवन बन जाएं, पर्याप्त शिक्षक हों, लेकिन पाठय सामग्री उच्चकोटि की न हो, पाठय सामग्री उच्च कोटि की हो, लेकिन छपाई निम्न स्तर की हो तो शिक्षा देने का काम ठीक से नहीं किया जा सकता। पुस्तकें ऐसी छपी हों कि बच्चे आकर्षित भी तो हों-पुराने जमाने के फिल्मी गानों की किताब की तरह छपाई न हो। एकदम सफेद कागज पर सुंदर छपाई हो और अगर चित्र दिए गए हैं तो वे स्पष्ट दिखाई दें। यह नहीं कि क्या चित्र है, यही समझ में न आए। ऑंखें गड़ा कर किताब पढ़ें बच्चे। ऐसा तो न हो। इन बातों का ध्यान शिक्षा मंत्री को ही रखना है और अपने मातहत काम कर रही संस्था को निर्देशित करना है। लगता है केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री ने अपने कार्यकाल में एक बार भी, एक भी पाठय पुस्तक का (जिसे एन.सी.ई.आर.टी. ने प्रकाशित कराया है) अवलोकन नहीं किया अन्यथा  पुस्तकों की ऐसी घटिया छपाई नहीं हुई होती।
एन.सी.ई.आर.टी. ने सी.बी.एस.सी. के लिए पाठयक्रम तैयार कराया और प्रकाशन की व्यवस्था भी शायद उसी ने की। वर्तमान में किताबें छपाई गई हैं उनकी गुणवत्ता निम्नकोटि की है। कक्षा छ: से कक्षा बारह तक की प्राय: हर पुस्तक की छपाई खराब है। न तो कागज उत्तम कोटि का है, उत्तम कोटि की बात छोड़ें, कागज मध्यम कोटि का भी नहीं है। पृष्ठों पर जो चित्र या कार्टून छापे गए हैं वे दागित हैं, कहीं-कहीं धब्बे ही हैं। चित्र ही समझ में नहीं आता। ऐसी पुस्तकें क्या पढ़ने-पढाने का उद्देश्य पूरा करेंगी। और यह इस वर्ष का मामला नहीं है। कई वर्षों से ऐसा होते आ रहा है। शिक्षा-सत्र समाप्त होते तक बच्चों की पुस्तकों के कव्हर पृष्ठ ऊघड़ जाते हैं अंदर के पन्ने बाहर निकल आते हैं क्योंकि बाइंडिंग का स्तर ठीक नहीं होता। छत्तीसगढ़ पाठय पुस्तक निगम द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की हालत भी ऐसी ही है। दरअसल इस पर सांसदों को मंत्रीजी का ध्यान आकृष्ट करना चाहिए। एन.सी.ई.आर.टी. को भंग करने से निजी क्षेत्र की दखलंदाजी बढ़ेगी, पुस्तकों की कीमतों में इजाफा होगा- अभी ही सामान्य ज्ञान की पुस्तक जो निजी प्रकाशन से ली जाती है, का मूल्य 130 रुपए है और पृष्ठ संख्या मात्र 64 है।
एन.सी.ई.आर.टी. की पाठय पुस्तकें तैयार करने में स्कूली शिक्षकों का कितना योगदान होता है, यह पता नहीं लेकिन कक्षा नवीं की किताब डेमोक्रेटिक  पॉलिटिक्स भाग-1 में टेक्स्ट बुक डेवलपमेंट कमेटी में नामों की (पद सहित) जो सूची है उसमें एक भी स्कूली शिक्षक का नाम नहीं है। हाँ, इस डेवलपमेंट कमेटी में विश्वविद्यालय, महाविद्यालय के योग्य शिक्षकों सहित सामाजिक संगठनों के विद्वान जरूर हैं। हाँ, डॉ. योगन्द्र यादव ने इस पुस्तक में 'लेटर फार यू' लिखा है उसमें यह उल्लेख जरूर है कि पाठय पुस्तक तैयार करने में स्कूली शिक्षकों की मदद ली गई- शायद सेमिनार तक ही उनकी भूमिका रही हो, अथवा पाठ तैयार किया हो। होना यह चाहिए कि इस डेवलमेंट कमेटी में भी स्कूली शिक्षक हों, घटिया छपाई, घटिया पेपर, घटिया बाईंडिंग से पाठय-सामग्री क्या खाक पढ़ी जाएगी। 

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