सोमवार, 14 मई 2012

उच्च शिक्षादिशा व दशा


पिछले हफ्ते मेरा निबंध कालेज शिक्षकों की रिटायरमेंट उम्र 65 वर्ष करने को लेकर था। अपने इस निबंध में रिटायरमेंट की उम्र बढ़ाने पर समाजशास्त्रीय समीक्षा की जाए, ऐसा जोर था मेरा। इस निबंध को लेकर कुछ मित्रों की राय रही कि कालेज शिक्षकों की रिटायरमेंट की उम्र इसलिए बढ़ाई गई है क्योंकि कालेजों में पढ़ाने युवा शिक्षकों की कमी हो गई है। कुछ का कहना रहा कि अब युवा वर्ग कालेज शिक्षक नहीं बनना चाहता। कालेज में शिक्षक बनने से कतरा रहे हैं युवक। इसीलिए प्राय: हर कालेज में शिक्षकों की कमी है। अगर वर्तमान में 62 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुके शिक्षकों को रिटायर कर दिया जाएगा तो एक और कमी का सामना कालेज प्रशासन को करना होगा। साथ ही कालेज विद्यार्थियों की पढ़ाई का भारी नुकसान होगा, वर्तमान शिक्षकों को रिटायर कर दिया गया तो वहां पढ़ाने वाले ही नहीं रहेंगे। कहां तो मैं सोच रहा था कि नए युग में औसत आयु बढ़ने और कार्यक्षमता में सुधार के कारण रिटायरमेंट की आयु 62 से 65 वर्ष की गई, कहां यह बताया जा रहा है कि कालेजों में शिक्षकों की कमी है, अगर वर्तमान कार्यरत शिक्षकों को रिटायर कर दिया गया तो पढानेवाले ही नहीं बचेंगे। मतलब सरकार कालेज के विद्यार्थियों की चिंता कर रही है। यह भी बताया जा रहा कि कालेज में शिक्षकों की कमी इसलिए है कि आज युवा शिक्षक बनना नहीं चाहते- न केवल कला विषयों में वरन् विज्ञान, गणित विषयों में भी इसी कारण शिक्षकों की कमी है। आज के समय जबकि कालेज शिक्षकों का वेतन अच्छा हो गया है, नए नियुक्त कालेज शिक्षक को ही 35 से 40 हजार प्रतिमान वेतन मिलता है, ऐसे समय कोई युवा कालेज शिक्षक न बनना चाहे, यह बात गले ही नहीं उतरती, आत्मा तक जाने व मन-मस्तिष्क से इस तर्क पर विश्वास कर लेने का सवाल ही नहीं उठता। इस बीच पिछले हफ्ते ही, एक-दो समाचार पत्रों ने राज्य में उच्चशिक्षा की स्थिति पर शोधपूर्ण रिपोर्ट छापी। इनसे, इनमें दिए गए आंकड़ों से पता चला कि राज्य के कालेजों में शिक्षकों के कितने पद रिक्त हैं और रिक्त होने का कारण क्या है। मुझे संतोष हुआ और अपने तर्क पर कायम रहने का बल मिला कि राज्य में 1991 के बाद कालेजों में रिक्त पदों पर भर्ती ही नहीं हो रही है। अभी राज्य में 172 कालेज हैं इनमें 1400 पद रिक्त हैं। गत वर्ष तक पचास प्रतिशत पद एडहाक से सरकार भर लेती थी। इस तरह कालेजों में पचास प्रतिशत नियमित शिक्षक और पचास प्रतिशत एडहाक शिक्षक हुआ करते थे। लेकिन इस वर्ष विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने इस अनुपात पर बंदिश लगा दी है। ठीक किया है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने निर्देश दिया है कि केवल दस प्रतिशत ही एडहाक नियुक्ति की जाए। इस निर्देश के बाद राज्य में उच्च शिक्षा विभाग केवल 180 शिक्षक ही एडहाक नियुक्ति कर सका। आज कालेजों में 180 शिक्षक ही एडहाक पर हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का यह निर्देश एक तरह से सरकार को संकेत है कि कालेजों में ''एडहाकइज्म'' बंद कर सरकार नियमित नियुक्ति करे। लेकिन सरकार ने नियमित नियुक्ति से कन्नी काट ली और शिक्षकों की कमी को रिटायरमेंट आयु बढ़ाकर पूरी करने की चालाकी पूर्ण चाल चल दी। लेकिन इससे राज्य में बेरोजगार घूम रहे, योग्य युवकों की समस्या हल नहीं होगी। बजट मांग के समय सरकार अपनी पीठ थपथपाती रहे। हो सकता है रिटायरमेंट उम्र बढ़ने पर ऐसे कुछ शिक्षक सरकार की जय-जयकार भी करें। लेकिन जो युवक कालेज में नौकरी पाने तरस रहे हैं, सालों से आस लगाए बैठे हैं, उनकी आह भी तो सरकार को लगेगी। कबीर ने कहा है- ''कबिरा हाय गरीब की...'' एडहाक पर कालेज शिक्षकों की नियुक्ति भी मजाक बनकर रह गई है। मजाक क्या, यह बेरोजगारों का शोषण ही है- सितम्बर में नियुक्ति दी जाती है और मई में सेवा से अलग कर दिया जाता है। 12 हजार रुपए प्रतिमाह देकर रायपुर के युवा को कुनकुरी जाने कहा जाता है। ऐसे में वह क्या खुद खाए, क्या परिवार चलाए। देना ही है तो पूरा वेतन (जो नियमित कालेज शिक्षक को मिलता है) दिया जाए। एडहाक का वेतन कम क्यों? एडहाक शिक्षक काम करते हैं, वही काम करते हैं जो नियमित शिक्षक करते हैं। फिर इनके वेतन में अंतर क्यों होना चाहिए। दरअसल राज्य सरकार शिक्षा को चलताऊ ढंग से ले रही है। दरअसल राज्य सरकार का न स्वास्थ्य सेवाओं से सरोकार है, न गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से, न सार्वजनिक परिवहन से. इसीलिए राज्य में उच्च शिक्षा का ऐसा एक भी केन्द्र इन बारह वर्षों में सरकार नहीं खड़ा कर सकी जहां प्रवेश लेने राज्य के बाहर के छात्र होड़ करें। राज्य से बाहर के छात्रों की बात छोड़ दें, राज्य के ही छात्रों व पालकों को यहां के शिक्षा केन्द्रों पर भरोसा नहीं है। इसलिए जो समर्थ हैं उनके बच्चे राज्य से बाहर ही प्राथमिकता दे रहे हैं। जो विवश हैं वे यहां पढ़ा रहे हैं। जिस राज्य में उच्च शिक्षा में प्रवेश की परीक्षा के पेपर आऊट होते रहें, वहां उच्च शिक्षा की दशा-दिशा का क्या हाल होगा, यह आसानी से पता चल जाता है। लॉ युनिवर्सिटी जरूर देश में अपनी गुणवत्ता को लेकर विख्यात है।
छत्तीसगढ़ के सैकडाें बच्चे पुणे, बेंगलोर, चेन्नई, बनारस, दिल्ली में जा रहे हैं। राज्य सरकार का ध्यान पारम्परिक और आधारभूत विषयों की गुणवत्ता सुधारने पर एकदम नहीं है। कालेजों में शिक्षक ही नहीं हैं तो गुणवत्ता कैसे आए- विद्यार्थी श्योर सक्सेस और कुंजियाँ पढ़कर परीक्षा दे रहे हैं, पास हो रहे हैं। शिक्षा में, वह भी उच्च शिक्षा में ऐसी विडम्बना दु:ख देती है। एक और बात सरकार जब कालेजों में नियमित  नियुक्ति नहीं कर रही है तो हर जुलाई में 5-7 कालेज क्यों खोल रही है। यह भी विडम्बना है या तो मतदाताओं को रिझाने का एक तरीका है।
बहरहाल यह तर्क जंचता नहीं कि युवा अब कालेजों में शिक्षक नहीं बनना चाहते। दरअसल, सरकार की उच्चशिक्षा की नीति में ही खोट है। जब शिक्षाकर्मी (अब इन्हें पंचायत शिक्षक कहा जाने लगा है) बनने लाखों युवा भर्ती-परीक्षा में शामिल होते हैं, तब महाविद्यालय के शिक्षक बनने के प्रति अरुचि नहीं हो सकती। एक और बात यह कि महाविद्यालयों के शिक्षकों का समाज, शासन, प्रशासन राजनीति हर क्षेत्र में पूरा सम्मान है। यह सही है कि समय के अनुसार समाज में इंजीनियरिंग या कहें समग्रता में तकनीकी शिक्षा के प्रति सम्मान बढ़ा है और एक दौड़-सी शुरु हो गई है। हर घर में एक इंजीनियरिंग पास या पढ़ रहा युवा मिल जाएगा। पारम्परिक शिक्षा के प्रति सम्मान कम है अगर सरकार कालेजों में शिक्षकों की नियुक्ति शुरु करे तो इन विषयों की ओर युवा दौड़ेंगे। एक और बात अब इन बीस वर्षों के अनुभव के बाद निजी क्षेत्र की नौकरी  की अपेक्षा सरकारी क्षेत्र को प्राथमिकता का मन युवावर्ग में बना है। दरअसल सरकार की उच्च शिक्षा की नीति ही व्यवहारिक नहीं है- हाँ, सरकारी बयानों में उच्चशिक्षा को लेकर आप्त वचन जरूर सुनाई पड़ जाएंगे। वैसे सम्पूर्ण शिक्षा को लेकर ही सरकार इसी तरह प्रवचन-सा देती है। राज्य में कालेजों में शिक्षकों की कमी बयानों से दूर नहीं होगी-सरकार को अपनी तिजोरी में से इस क्षेत्र के लिए भी रखना चाहिए। नियुक्ति के दरवाजे खुलें, युवा आने तैयार हैं। योग्य भी हैं। 
कालेज शिक्षक क्यों नहीं बनेंगे- हजारों युवा स्लेट उत्तीर्ण कर बेरोजगार बैठे हैं। सात हजार युवा जून-जुलाई में कैट परीक्षा में शामिल होने वाले हैं।
मुक्तिबोध की कविता 
काट दो यदि तना
तो फिर प्राण-रस
किस राह से पहुँचे भला
उस डाल तक, जिस पर विकसित पतियाँ
शायद खिले जिस पर सुनहला फूल।

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