शनिवार, 12 मई 2012

सिवलि सोसायटी और जन प्रतिनिधि


लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में सरकार और जनता के बीच सम्बन्ध  'संवादी' का होना चाहिए लगातार संवाद चले । ऐसा संबंध तभी होगा जब दोनों के बीच मैत्रीपूर्ण रिश्ता हो। अन्यथा दोनों के बीच खींचतान चलती रहेगी । लोकतंत्र में जनता और सरकार के बीच फर्क नहीं होता - सरकार जनता की होती है और इस अर्थ में जनता ही सरकार होती है और सरकार जनता होती है । लेकिन ऐसा हो नहीं रहा । हो यह रहा है कि जनता अपनी सरकार चुन देती है और सरकार खुद को जनता से ऊपर समझ लेती है - सरकार और जनता के बीच भेद खड़ा होता है, दीवार बन जाती है । केवल चुने जाने के लिए जनता को सर्वोपरि का दर्जा देने का ढकोसला किया जाता है । ऐसा कहना भी ठीक नहीं कि जनप्रतिनिधि जनता के नौकर हैं नौकर कहना जनप्रतिनिधियों का अपमान है और जनता का भी अपमान है । लोकतंत्र में न कोई नौकर होता न कोई सेवक-सब बराबर के होते हैं । जनता में सरकार समाहित है और सरकार में जनता । जनता ने ही संविधान को अंगीकार  किया है, ऊपर बैठे किसी ने या सरकार ने संविधान थोपा नहीं है । थोपने का कम सांमती व्यवस्था में होता था । लोकतंत्र में जनता ने स्वीकार किया है और अपने हित में काम करने के लिए कुछ प्रतिनिधियों का, अपने में से, चुनाव किया है। लोकतंत्र में तलवार की ताकत से राजा नहीं बनता, जनता की पसन्द का ही प्रतिनिधि बनता है । इसलिए जो चुनकर आए हैं वे ही जनता के प्रतिनिधि हैं - पंचायतों से लेकर देश की सबसे बड़ी सभी संसद तक जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधि हैं । जनता के प्रतिनिधियों को छोटा मानना लोकतंत्र और अंतत: जनता को छोटा मानना है । जो भी चुनकर गए हैं वे जनता के प्रतिनिधि है । ऐसे चुने गए लोगों को ही जनता के बारे में निर्णय लेने का हक है - यह उन्हें जनता ने दिया है । देश में और भी संगठन होते हैं, जो जनता के लिए जनता के बीच काम करते हैं, लेकिन ऐसे संगठन, ऐसे व्यक्ति जनप्रतिनिधि नहीं होते । ऐसे संगठन किसी समूह, गुट वर्ग के प्रतिनिधि होते हैं। वे उसी हैसियत से बातें रखते हैं । केवल मजदूर संगठन ही सम्पूर्ण बदलाव की माँग करते हैं, लेकिन तकनीकी रूप से मजदूर संगठन भी जनता के प्रतिनिधि नहीं है । जब तक मजदूरों का राज न आ जाए वे जनता के प्रतिनिधि नहीं कहला सकते । लोकतंत्र में किसी सनक के तहत काम नहीं किया जाता या निर्णय नहीं लिया जाता । राजा की मर्जी जैसी बात नहीं होती । इस लोकतंत्र में राजनीतिक प्रक्रिया के तहत काम होता है - चुनाव से लेकर निर्णय तक क्योंकि जनता ने अपने संविधान में ऐसी व्यवस्था कर दी है । जरूरी नहीं कि सरकारें हर काम ठीक ही करें । जन विरोधी निर्णय भी होते हैं । उन पर अंकुश लगाने विपक्ष होता है, विपक्ष भी राजनीतिक प्रक्रिया का अंग होता है । सामाजिक संगठन भी जनता के हित में कार्यक्रम पेश करते हैं, सुझाव देते हैं। जनविरोधी नीतियों का विरोध करते हैं । ऐसा करना लोकतांत्रिक अधिकार है । निर्णय राजनीतिक व्यवस्था में निर्धारित प्रक्रिया के तहत ही होता है । इसलिये जनता के लिए, उसके हित में काम करने वाले संगठन सरकार पर दबाव बनाएं, राजनीति को जनहित की ओर मोड़ें ? इतना दबाव बनाएं कि सरकार विवश जाए और जनहित में निर्णय ले लेकिन सब कुछ जन प्रतिनिधियों को ही करने दिया जाए - अन्यथा देश में अराजकता फैल जायेगी। जरूरी नहीं कि हर कोई चुनाव में शामिल हो, यह जीतकर जाए तभी से बात करने का अधिकार मिले। चुनाव से बाहर रहकर भी जन दबाव, जनचेतना के लिए काम किया जा सकता है, किया भी जा रहा है। लेकिन निर्णय तो जनप्रतिनिधि ही लेंगे । उन्हें ही लेना है । जनता से ऊपर सामाजिक संगठन नहीं है और क्योंकि जनप्रतिनिधि जनता के बीच से आते हैं, जनप्रतिनिधि इस अर्थ में जनता हैं, इसलिए जनप्रतिनिधि सारे गैर राजनीतिक संगठनों से ऊपर हैं। जनता की आवाज उठाने वाले संगठनों, व्यक्तियों का जनता सम्मान करती है, लेकिन उन्हें निर्णय का अधिकार जनता ने नहीं दिया। जनता ने अपने प्रतिनिधियों को ही निर्णय का अधिकार दिया है । इसलिए निर्णय लेने की स्थिति पाना है तो जनता द्वारा चुना जाना होगा ।
      लोकपाल विधेयक को लेकर सिविल सोसायटी ने अपना प्रारूप सरकार के प्रतिनिधियों को सौंप दिया। अब संसद को आगे का काम करना है । इसलिए सिविल सोसायटी को अब प्रतिक्षा करनी चाहिए। अगर लोकपाल बिल उम्मीद के अनुसार न हुआ,  ढीला-ढाला हुआ तो फिर से जनजागृति हो, दबाव बनाया जाए। सरकार, हमारे जनप्रतिनिधि (जो विपक्ष में हैं) करते क्या हैं, यह तो देखें । थोड़ा धीरज रखें । खुद को जनप्रतिनिधियों से ऊपर समझ लेना जनता को छोटा समझना है । जनप्रतिनिधियों को बेईमान कहते जाना भी अच्छा नहीं । हर दल हर विचार के बड़े, छोटे दल के प्रतिनिधि वहाँ हैं। वे सब मिलकर ही संसद हैं । और जनता के प्रतिनिधि, जनता के प्रति जवाबदार हैं। सिविल सोसायटी ने एक काम किया । अब संसद को करने दिया जाना चाहिए ।
      मीडिया के सरोकार एकदम बदल गए - अब वह क्षण-क्षण की रिपोर्टिंग के लिये है । सरकार, सिविल सोसायटी कुछ और राजनीतिक दलों ने कुछ ऐसा संयोग पैदा किया है कि बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के तेजी से लागू करते समय ही भ्रष्टाचार, कालाधान जैसे मुद्दों पर जन आंदोलन खड़ा हो गया जिससे नवउदारवादी नीतियां लागू करने की दिशा में चलने की ओर से जनता का ध्यान बंटा रहे । अन्ना हजारे कहते हैं कि अभी दूसरी आजादी लानी है । लेकिन इस दूसरी आजादी में मजदूर, किसान मेहनतकश, मध्यवर्ग की आजादी को स्पष्ट नहीं करते । भ्रष्टाचार मिट जाने मात्र से क्या समावेशी विकास का उद्देश्य पूरा हो जाएगा। भ्रष्टाचार विहीनता में भी अगर आर्थिक नीतियां ऐसी ही बाजार आधारित रहीं तो लाभ कार्पोरेट और उससे जुड़े वर्ग का ही होगा। समतावादी समाज बनने पर ही दूसरी आजादी आएगी। संविधान, कानून-कायदे, विधयेक की धारओं के उद्धारण दे देकर आम जन को भटकाया जा रहा है । इन नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के सवाल को उठाने के बदले टुकड़े-टुकड़े में मुद्दे उठाए जा रहे हैं और वाहवाही लूट रहे हैं ।
      खाद पर से सब्सिडी हटाने का मामला उस वर्ग में सनसनी पैदा नहीं करता जो भ्रष्टाचार दूर करने लड़ रहे हैं । जो खुद को सिविल सोसायटी कहते हैं वे किसानों की इस जबरदस्त मार पर ध्यान नहीं देते । वे भी उस बड़े मुद्दे के साथ हैं । पता नहीं इन सिविल सोसायटी को कहां-कहां से अनुदान मिल जाता है । खाद पर से सब्सिडी हटाने के सरकार के निर्णय से निजीकरण के हिमायती अखबार प्रसन्नता व्यक्त करते रहे और सरकार को साधुवाद देते रहे। एकाध भाषायी समाचार पत्र को छोड़कर किसी ने इस और ध्यान नहीं दिया । ऐसे अखबार भी इलेक्ट्रानिक मीडिया से प्रतिस्पर्धा करने में भिड़ गए कि किस तरह यादा सनसनी फैलाई जाए । सरकार ने ही खाद पर से सब्सिडी हटाने भाजपा के विरोध का सवाल ही नहीं उठाता ।
      यह भी तय है कि किसानों की मुसीबत में न सिविल सोसायटी लड़ेगी न बड़े राजनीतिक दल न स्वयंसेवी संगठन। और किसान संगठन आवाज उठाए भी तो इस हल्ला-गुल्ला में उनकी आवाज कौन सुनेगा ।

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